Wednesday, 1 June 2016

विश्रामपूर... आग्रा... विश्रामपूर (मनोगत)

कट्यार काळजात घुसली हे नाटक जरी आपल्यापैकी बर्याच जणांनी पहिले नसले तरी नुकताच आलेला चित्रपट बर्याच जणांनी पाहिला असेल. त्यातील खांसाहेब आणि त्यांची बेगम ही दोन पात्रे जर बोलू लागली तर... माझ्या नजरेतून ते काय बोलतील ह्याचे वर्णन खाली आहे. अर्थात जेव्हा मी “माझ्या नजरेतून” म्हणतो तेव्हा मूळ नाटक, चित्रपटाची कथा ह्याच्याशी त्याचा कसलाही संबंध नाही याची कृपया नोंद घ्यावी.

विश्रामपूर... आग्रा... विश्रामपूर


दिनांक : ३१ मे २०१६
लेखन: अभिजीत अशोक इनामदार

विश्रामपूर: ये कहानी हम किसीको क्यू बताये भला.... किसीको क्या और क्युं दिलचस्पी हो सकती है! हां  हम... हम वही है आफताब हुसैन बरेलीवले... खांसाहेब इस नाम से भी आप मे से कई लोग जानते है हमे| आप के लिये तो हम वही अपराधी है, जीन्होने पंडितजी के साथ धोका किया| उनकी आवाज छीनली| वही अपराधी खांसाहेब... लेकिन क्या आप जानते है की हम अकेलेही गुनेहगार नही थे| गुनेहगार थी वोह दशेहेरेकी वो मेहफिल जिसमे दो कलाकारो को एक दुसरे के खिलाफ खद कर दिया| आपस मे लडाया| आपको क्या लागता है... की जीन पंडित भानुशंकर शास्त्रीने हमे मिरजसे विश्रामपूर बुलाया| रेहनेको छत दिलवायी, हमारी बेटी को संस्कृत पाठशाला मे दाखिला दिलवया उनके बारे में ऐसा कुछ करनेकी सोच भी कैसे सकते थे?
पंडितजी के लिये हमारे दिल मे आदर जरूर था, पर हर साल दशेहरा मेहफिल मे होती हुई हमारी शिकस्त हमे साल दर साल कमजोर बनाती गयी| लेकिन फिर भी हमने कभी पंडितजी का बुरा नही सोचा था| एक बार लोगोंके ताने सून सुनके हमने हमारी जान लेनेकी कोशिश की थी| वोह भी एक कमजोर पल का हमारे सिनेपर किया गया एक वार था| हम अपने आप को संभाल नही सके थे| पर हमारे मन मे सबसे ज्यादा नाराजगी तब हुई जब पंडितजी ने आके केह दिया की "आप एक बार केह देते तो मै राजगायक पद छोड देता!" क्या हमारी गायकी, हमारी मेहनत कुछ भी नही थी की वोह राजगायक पद हमे पंडितजी ने छोडा इसलिये हमे नसीब हो? बेशक इस बात का जवाब “नही” ऐसा ही है| हमारे घराने की गायकी भी लाजवाब थी, है और हमेशा रहेगी| १४ साल हारने के बावजुद हमारे मन में कभीभी पंडितजी को कुछ करने का खयाल तक नहीं आया| हमारी बेगम को तो राजगायक की शानोशौकत, वोह हवेली, वोह पैसा दिख रहा था| हमे अपने घराने की गायकी, हमारे सुरोंकी तारीफ हो... वही काफी था| लेकिन वोह तारीफ दशेहरा मेहफिल की जीत की मौताज थी जो की हमे कतहि पसंद नही था| हमारे घराने की गायकी को उसका सम्मान दिलाने की हमारी कोशिश को बेगमसाहिबा ने राजगायक पद की चाहत समझा| कितनी बडी भूल हो गयी| अगर ऐसाही होता तो हम ऐसा कुछ बहोत पेहले कर बैठते ना की हर साल पंडितजी से मुकाबला करते|
हमे आज भी याद है वोह मेहफिल जिस में पंडितजी गा नही सके थे| पर उस वक्त हमारी बेगम से पंडितजी की आवाज छिनलेने का गुनाह हो चुका है ये हम नही जानते थे| जब हमे वो बात पता चली तब तक देर हो चुकी थी| उस दिन हम बहुत खुश थे की हमारी इतने सालों की मेहनत रंग लायी थी| मगर ये बात सुनने पर तो हमने हमारी जीत का जश्न भी नही मनाया था| ये गुनाह हमारे बेगमसाहिबा ने किया था जो की हमे बिलकुल पसंद नही था| इसलिये हमने उनसे रिश्ता तोड दिया था| हमारे घरानेकी गायकी को जीताने के लिये ऐसा कुछ किया गया ये हमारे समझके बाहर था| पंडितजी को लागा ये हमारी साजिश थी... पर वोह हमारी साजीश नाही थी| बेगमसाहिबा ने कहा के हमारी तकलीफ, हमारा दुख, हमारा दर्द उनसे देखा नही गया और उन्होने ऐसा कर दिया| पर हम जानते है की वोह गुनाह है और कभी माफ नही किया जा सकता|

आग्रा: हम वोही बदनसीब खांसाहेब की बेगम है जिसे कभी कुछ हासील ना हो सका| पेहले हम मिरज से विश्रामपूर आये तो वोह पंडतकी बदौलत. पर खांसाहेब को वोह मान मरातब, शानोशौकत नसीब नही हुई| उनकी नाराजगी वोह कितनी बार भी चाहे पर हमसे छुपा नही सकते थे| उनकी गायगी बिलकुल दुरुस्त थी पर न जानो दरबार में वो किसीको क्यू पसंद नही आ रही थी| हर साल हुई शिकस्त उनको और उदास बनाती गयी| एक बार तो उन्होने अपने आपको खतम करनेकी कोशिश की| हमसे उनकी वोह हालत देखी नही गयी| क्या करती.... प्यार जो करती थी उनसे... मतलब अब भी करती हु पर अब वोह मेरे शोहर नही रहे| हां उनको जीताने के लिये हमने पंडत को सिंदूर खिलाया| हमने सबसे बडा गुनाह किया| और कुछ नही चाहा... वोह जीत जाये... खुश रहे यही एक तमन्ना थी| वोह जीत तो गये पर हमारी जुदाई की किमत पर| हमे दूर कर के वो दुनिया की नजरोंसे खुद को तो बचा सके, पर क्या पता खुदीही कि निगाहों से कैसे बचाते है खुद को|
वो जानते है के ये सब मैने अपने आप के लिये नही किया था| उनका तील तील मरना मुझसे देखा नही गया... और मैने ये गुनाह कर लिया| हां... मै जानति हु के मैने गुनाह किया है| और मै ये भी जानति हुं की उसकी सजा उन्हे नही मीलनी चाहिये| लेकिन वो सिर्फ एकबार प्यारभरी नजरोंसे केह देते की "बेगम आपने हमारे लिये इतना बडा कदम उठाया? इतना इश्क फरमती हो हमसे?" हम तो बस ये सुनने के लीये बेताब थे| वोह ऐसा केह देते तो हमारी हजारो जिंदगानिया उनपर कुर्बान कर देते हम… पर हमारे नसीब ना वो प्यार आया जिसकी हमे ख्वाइश थी| लेकिन उन्होने अपने घराने की गायकी के आगे कभी कुछ सोचा हि कहा? उनके सूर, उनकी गायकी यही उनका नसीब था| हमारे नसीब मे तो तलाखनामा आया| आखिर गुनाह किया है हमने... उनसे इश्क फरमाने का गुनाह, वोह… और उनकी गायकी जीत जाये ये चाहत रखने का गुनाह, उनकी जीत हो इसलिये पंडतकी आवाज छिन लेने का गुनाह... इतने सारे गुनाह किये.... सजा तो मीलनी ही थी|
 
विश्रामपूर: शायद बेगमसाहेबा की आरजू होगी की हम उन्हे केह दे की… “क्यू उन्होने यह गुनाह हमारे लिये किया|” पर वोह हम नही कर सकते| ऐसा कर के हम उन्होने जो गुनाह किया है उसकी हयमियत नही कर सकते| ऐसा करके उन्होने हमारे हुनर, हमारी गायकी को भी शक के कटघरे में लाके खडा कर दिया जो हमे कतही पसंद नही| पंडितजी जब गाये नही... तब उस बात को अपनी जीत ना मानकर हम हमारे १४ सालोकी मेहनत, हमारी गायकी को हराना नही चाहते थे| हमारी बेटी ने हमे मौकापरास्त कहा... जब हमारी बेगम ने गलती की… उसका फायदा हमने उठाया, सदाशीव ने गलती की उसका फायदा हमने उठाया| मगर हमने दोन्होसे गलती करनेकी चाह नही रख्ही थी| पर उसके बावजुद… हमसे हारे हुये सदाशीव को हमने दुसरा मौका दिया| अगर हम उससे, उसकी गायकीसे डरते तो उसे वो मौका हम कतही नही देते| लेकिन हमने वोह दिया|
जब सदाशिव ने हमारे घराने की गायकी का अंदाज चुराया… हमे बहोत तकलीफ हुई उस बात से| सदाशिव को हम कभी मारही नही सकते थे| उसको मारने कि चाह तो सिर्फ और सिर्फ अंदरुनी नाराजगी की वजहसे थी… क्युंकी हम उसके जैसा शागीर्द हमारे घरानेमे बना नही सके| मगर उसकी गायकी सुनकर तो ऐसा लागा की क्यू हम ये अलग अलग घरानोकी गायकी को लेकर बैठ गये| कीस चीज का गुमान जिंदगीभर लेकर बैठे| उसकी गायकीने हमारे अलग अलग घरानोंकी अलग अलग गायाकिके अंदाजकोही सुरंग लगाया| ये हमारी सोच के परे था| इसीलिये उसको अपना शागीर्द बनानेकी उसकी चाह को हमने स्वीकार नही किया| अब ऐसे फ़नकारको हम क्या तालीम देनेवाले थे| पंडितजीकी आवाज जाने की वजह्को भी भरे दरबार में, हमे जिम्मेदार ठहराया गया था| भलेही गुनाह किसी और ने किया था... पर वो हमारे लिये किया था| हमने इतनी बरसो तक जो हमारी पेहचान बनायी थी जो सिर्फ हमारी गायकी कि वजह से थी और ऐसी शखक्सियत को उस दिन भरे दरबार में खुनी बताया गया था| क्युंकी हम सच्छे फ़नकार है और हमारे अंदर का फ़नकार जिंदा है, इसलिये हमने खुदही को सदाशिव के गुरु बनने के लायक नाही समझा| हमने वहा से निकल जाने का फैसला किया|

आज हम सोचते है... हमारी चाह तो सिर्फ इतनीही थी की हमारी घराने की गायकी को सराहा जाय| जो बित गया उसे हम चाह्कर भी बदल नही सकते| लेकिन अगर हम गलत थे तो और भी कई चीजे गलत थी| गलत था वो विश्रामपूर का दरबार जिसने ऐसी प्रतियोगिता रखी| गलत थी वो कटार और उसके इस्तमाल का हक जो जितनेवाले को दिया जाता| गलत था वो अलग अलग घरानोकी गायकी को आपस मे टकराना… जीससे आपस में प्यार और भाईचारे की जगह आपस में रंजिशे मुकम्मल हो|

हमारी इन बातो से हर कोई सहमत हो नही सकता ये हम जानते है, लेकिन हमारी एकही ख्वाइश है के जब जब इतिहास के पन्नो में गायकी का जिक्र हो... तब तब हमारा नाम हमारे घराने की गायकी की वजहसे हो.... ना की पंडित भानुशंकर शास्त्री के आवाज के कातील इस वजह से... क्या ये मुमकिन है?     

©अभिजीत अशोक इनामदार
  कामोठे, नवी मुंबई ४१० २०९

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